भारत का सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 अपने 20वें वर्ष की ओर बढ़ रहा है—लेकिन इसका असली मतलब अब धीरे-धीरे मिट रहा है। सतर्क नागरिक संगठन की 2023-24 की रिपोर्ट के अनुसार, देश भर के सूचना आयोगों में 4 लाख से अधिक अपीलें अनिश्चितकालीन रूप से जमा हैं। जबकि आम आदमी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है, आयोगों के कार्यालय खाली पड़े हैं, नियम बदले जा रहे हैं, और वह जनता का हथियार जिसने भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े मामले खोले, अब एक दफ्तरी दस्तावेज बनता जा रहा है।
आयोग खाली, अदालत चिंतित
केंद्रीय सूचना आयोग (केंद्रीय सूचना आयोग) में मई 2014 के बाद से कोई कमिश्नर नहीं नियुक्त हुआ। एक ऐसा आयोग जिसका काम है नागरिकों की अपीलों का निपटारा करना, वह अब एक खाली कमरा है। झारखंड का सूचना आयोग पांच साल से अक्रिय है। इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2023 में स्पष्ट किया कि अगर आयोगों के पद खाली रहे, तो आरटीआई अधिनियम ‘मरा हुआ अक्षर’ बन जाएगा। यह न सिर्फ एक चेतावनी है—यह एक अदालती तथ्य है।
2019 का संशोधन: आयोगों की स्वायत्तता का अंत
2019 में पारित हुआ आरटीआई संशोधन अधिनियम ने आयोगों की स्वायत्तता को जड़ से उखाड़ दिया। अब केंद्र सरकार तय कर सकती है कि कमिश्नरों की नियुक्ति कब होगी, उनकी तनख्वाह कितनी होगी, और बंदोबस्त के बाद उन्हें क्या भत्ते मिलेंगे। यह बदलाव एक स्पष्ट टकराव है—जहां आयोग को शासन के खिलाफ जांच करनी है, लेकिन उनकी तनख्वाह और नियुक्ति उसी शासन के हाथ में है। स्रुष्टि वर्मा एस.एम. के विश्लेषण के अनुसार, यह ‘प्रशासनिक नियंत्रण’ का नया रूप है।
डीपीडीपी अधिनियम: निजी जानकारी का बड़ा ढक्कन
2023 में पारित डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम ने आरटीआई के धारा 8(1)(ज) में एक नया बड़ा छेद डाल दिया। अब कोई भी निजी जानकारी—चाहे वह किसी अधिकारी की संपत्ति का बयान हो, या उसकी शिक्षा की योग्यता, या अनुशासनात्मक कार्रवाई का रिकॉर्ड—उसे छिपाया जा सकता है, बशर्ते यह न कहा जाए कि ‘बड़ा सार्वजनिक हित’ इसकी खुलासा करने की आवश्यकता है। यह बदलाव विजनआईएएस के विश्लेषण के अनुसार, अधिकारियों के लिए एक ‘अवैध ढाल’ बन गया है। अब भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले नागरिकों के पास यह भी नहीं है कि वह जांच के लिए किसी की आय-संपत्ति का दस्तावेज मांग सके।
98% मामलों में दंड नहीं: जिम्मेदारी का अभाव
आरटीआई की धारा 20 के तहत, अगर कोई पब्लिक इनफॉर्मेशन ऑफिसर (PIO) अपनी जवाबदेही नहीं निभाता, तो उसे जुर्माना लगाया जा सकता है। लेकिन सतर्क नागरिक संगठन की रिपोर्ट कहती है कि 98% मामलों में ऐसा दंड लगाया गया ही नहीं। यह न सिर्फ अनदेखा है—यह एक जानबूझकर नजरअंदाज़ी है। जब अपराधी को दंड नहीं मिलता, तो अपराध बढ़ता है। और यही हो रहा है।
भाषा, भुगतान, और बाधाएं: आम आदमी का संघर्ष
आरटीआई का उद्देश्य सबके लिए है—लेकिन अब यह वही है जो आम आदमी तक नहीं पहुंच पा रहा। हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के पोर्टल पर हिंदी का विकल्प ही नहीं है। गुजरात, कर्नाटक और पंजाब में हिंदी नहीं है, बस अंग्रेजी और स्थानीय भाषा। और फिर भुगतान का मुद्दा। अधिकांश राज्यों में ऑनलाइन भुगतान नहीं है। आपको डिमांड ड्राफ्ट भेजना होगा, या पोस्टल ऑर्डर। इसका मतलब है—आपकी अपील का निपटारा 30 दिन में नहीं होगा, क्योंकि आपका भुगतान रुक गया।
अपीलों का भारी बोझ: एक साल का इंतजार
दस्तावेज़ों की अपील करने के लिए आपको लगभग एक साल इंतजार करना पड़ सकता है। डाउन टू ईथर के अनुसार, 14 आयोगों में एक अपील का निपटारा एक साल से अधिक का समय लेता है। और यहां तक कि जब जवाब आता है, तो वह अक्सर अर्थहीन होता है। क्योंकि जब आपको पता चलता है कि एक अधिकारी ने 2018 में भ्रष्टाचार किया, तो उसका क्या फायदा? सूचना देर से मिले, तो वह सूचना नहीं होती।
आरटीआई बन गया आरडीआई: अधिकार का अधिकार नहीं, इनकार का अधिकार
2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि आरटीआई की धारा 8 का उपयोग संकीर्ण और सख्ती से किया जाए। लेकिन अब एक अन्य मामले—गिरीश रामचंद्र देशपांडे का मामला—को छह बार इस्तेमाल किया गया है, जिसके जरिए आरटीआई को आरडीआई—Right to Deny Information—बना दिया गया है। अधिकारियों अब इस फैसले को बहाना बनाकर किसी भी जानकारी को छिपा सकते हैं।
आगे क्या होगा?
इस विनाश के बावजूद, आरटीआई अभी भी भारत के लोकतंत्र की एक अटूट आधारशिला है। लेकिन अगर अब नहीं तोड़ा गया, तो यह बस एक स्मारक बन जाएगा। आगे के चरण में तीन चीजें जरूरी हैं: पहला, सुप्रीम कोर्ट की दिशा-निर्देशों का पालन करके सभी आयोगों के पद तुरंत भरे जाएं। दूसरा, 2019 के संशोधन को रद्द किया जाए, ताकि आयोग फिर से स्वतंत्र हो सकें। तीसरा, ऑनलाइन भुगतान, हिंदी भाषा समर्थन, और नागरिक जागरूकता के लिए एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया जाए।
राज्यों के प्रति जिम्मेदारी का अभाव
केंद्र सरकार तो बस अपने आयोग को खाली छोड़ रही है, लेकिन राज्य सरकारें भी इस मुद्दे पर चुप हैं। राजस्थान अकेला है जहां ऑनलाइन भुगतान संभव है। बाकी सभी राज्य अपने नागरिकों को डाकघर और बैंक के लिए भेज रहे हैं। यह न सिर्फ अनुचित है—यह असंवैधानिक है। आरटीआई का अधिकार एक राष्ट्रीय अधिकार है, लेकिन उसे लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों के हाथ में है। और वे उसे नजरअंदाज़ कर रहे हैं।
साहसी नागरिकों के खिलाफ धमकियां
कई आरटीआई एक्टिविस्ट्स को धमकियां मिल रही हैं। कुछ को नौकरी से निकाल दिया गया, कुछ को गिरफ्तार किया गया, कुछ के खिलाफ झूठे मामले दर्ज किए गए। काउंटरकरेंट ने इन घटनाओं को दस्तावेज़ किया है। भले ही व्हिसलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट है, लेकिन उसका कोई असर नहीं। इसका अर्थ है—जो आपके लिए सच बोलने के लिए तैयार है, उसे डराया जा रहा है। और डर अब आरटीआई का सबसे बड़ा दुश्मन है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
आरटीआई अधिनियम के खिलाफ सबसे बड़ा खतरा क्या है?
सबसे बड़ा खतरा आयोगों की स्वायत्तता का नष्ट होना है। 2019 के संशोधन के बाद, केंद्र सरकार अब कमिश्नरों की तनख्वाह, कार्यकाल और भत्ते तय कर सकती है—जिससे उनकी निष्पक्षता को खतरा है। इसके अलावा, डीपीडीपी अधिनियम ने निजी जानकारी के लिए व्यापक छूट दे दी है, जिसका दुरुपयोग भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए हो रहा है।
क्या आरटीआई का उपयोग अभी भी लाभदायक है?
हां, लेकिन अब यह एक अत्यंत कठिन प्रक्रिया बन गया है। अभी भी कई मामलों में आरटीआई ने भ्रष्टाचार को उजागर किया है—जैसे बेकार की निविदाओं, अनियमित भुगतानों और निजी संपत्ति के अवैध अर्जित करने के घटनाक्रम। लेकिन इसके लिए अब नागरिकों को बहुत अधिक समय, साहस और जानकारी की आवश्यकता होती है।
क्यों नहीं भरे जा रहे आयोगों के पद?
केंद्र सरकार का यह जानबूझकर नजरअंदाज़ है। आयोग अगर सक्रिय होते, तो उनके द्वारा खुलासा होने वाली जानकारी शासन के लिए असुविधाजनक हो सकती है। यह एक जानबूझकर नीति है—जिसका उद्देश्य नागरिकों के लिए जानकारी का दरवाजा बंद करना है।
आरटीआई के लिए आम आदमी क्या कर सकता है?
आप अपने राज्य के आयोग के लिए आवेदन कर सकते हैं, अपने स्थानीय समूहों के साथ जुड़ सकते हैं, और आरटीआई के उपयोग के बारे में अपने परिवार और पड़ोसियों को जागरूक कर सकते हैं। ऑनलाइन भुगतान की अनुमति देने के लिए राज्य सरकारों पर दबाव बनाना भी जरूरी है। जागरूकता ही अब आरटीआई का एकमात्र बचाव है।
क्या सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति में हस्तक्षेप करेगा?
हां, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही चेतावनी दे दी है। अब यह देखना होगा कि क्या यह एक निर्देश जारी करेगा जो सरकार को बाध्य करे। अगर कोर्ट ने अपने आयोगों के नियुक्ति के लिए समय सीमा तय कर दी, तो यह एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा। लेकिन यह नागरिकों के दबाव पर निर्भर करेगा।
आरटीआई के भविष्य के लिए क्या आशा है?
आशा अभी भी जीवित है—लेकिन वह अब नागरिकों के हाथों में है। अगर लाखों नागरिक आरटीआई का उपयोग करना जारी रखें, अपनी अपीलें दर्ज करें, और आयोगों के लिए नियुक्ति की मांग करें, तो यह अधिनियम फिर से जीवित हो सकता है। नहीं तो, यह केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाएगा।